गर मेरी बोल-चाल, मेरे पहनावे से,
तुम्हें मैं कोई और लगूँ;
तो कुछ देर और ठहर जाना।
मेरी बातों को मेरे गाँव तक पहुँचने में,
ज्यादा वक्त नहीं लगता।
मेरे कपडों से आती मिट्टी-नीम की भीनी-भीनी सुगंध,
ढूँढ़ लेगी तुम तक पहुँचने का पता।
क्यूँकि,
बदली नहीं हूँ मैं।
गर मेरे आसमान छूने के सपने से,
तुम्हें मैं शहरी लगने लगूँ;
तो दोबारा मेरी आँखों में झांक कर देखना।
अपने गाँव की गलियों में,
नहर किनारे, बाड़ी के पास,
बसने को तरसती निगाहें दिखेंगी।
क्यूँकि,
बदली नहीं हूँ मैं।
©noopurpathak
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